Thursday, November 15, 2012

हिन्दू और मुसलमान


अरसा पहले
जब मंदिरों मे हुआ करती थी
सच मुच की आरती ,
मस्जिदें अजान मे गुनगुनाती रहती थीं,

तब
जबकि भूख ...
माँ के हाथों की लज्जत मे हुआ करती थी,

उसी दौर मे
एकाएक पागल हों गया था आदमी
कलाईयों मे राखी की जगह
तलवारें आ गयी थीं
औरतें -बच्चे काट डाले गए थे
जानवरों की तरह,
हाँ एक दम उसी दरमियाँ
जब
चूल्हों की आग
सुलगने लगी थी
दूसरों के घर
और
बेटियों के बदन पर....

उसी मारकाट के दौर मे
जब की
दो भाइयों ने
बाँट लिया था अपना आँगन,

कुछ फसलें कट चुकी थीं
कुछ का कटना बाकी था

वो दौर......

ओह
उस रेल-पेल
भागम भाग
मार काट मे

दो भाइयों की लाशें
जिन्दा बच गयीं थीं
जिन्हें हम आज
हिन्दू और मुसलमान कहते हैं!
*amit anand

जाने दो

मैं दंगाई नहीं

मैं आज तक

नहीं गया

किसी मस्जिद तक

किसी मंदिर के अन्दर क्या है

मैंने नहीं देखा,



सुनो

रुको

मुझे गोली न मारो

भाई

तुम्हे तुम्हारे मजहब का वास्ता

मत तराशो अपने चाक़ू

मेरे सीने पर,



जाने दो मुझे

मुझे

तरकारियाँ ले जानी हैं



माँ

रोटिया बेल रही होंगी!



*amit anand 

गुनाह

बरसती दुपहरियों मे बरामदे पर चारपाई डाले हुए मन .... हवाओं के साथ बहती आती हुयी बूंदों मे भीगता ... सिहरता अतीत की ओर भागता है!
बीते दिन याद आते हैं.... एक अनदेखी लेकिन चम्पई एहसास समेटे हुए एक लड़की... जिसकी सांस सांस मे कविता के शब्द झरा करते थे.... मंदिर की घंटियों के से शब्द!

याद आते हैं बीते हुए दिन.... तकिये मे सिर छिपाए हुए, 
आरती के सुर.... शाम के धुंधलके मे मस्जिद से आती हुयी अजान सी उसक
ी बोली.... उबलते हुए दूध मे अभी अभी डाले गए केशर की सी यादें भीतर भीतर घुलती हैं!

अपने पाप..... अपना छल याद आता है, बारिशें हैं की जोर पकडती जा रहीं! भीतर की ढृढ़ दीवाल दरक रही हों मानो
उसकी पावनता... उसका अपनापन....
ओह ओह
तकिया पानी मे नहीं भीगा शायद..... आँखें गीली हैं मेरी!

मेरे ईश्वर!
भले ही मेरे गुनाह ना माफ़ कर!

लेकिन उस मासूम फ़रिश्ते को खूब सारी खुशियाँ देना...


*amit anand

डर

अब तो नींद से भी डर लगता है..

दिन भर की मक्कारियां बुनता मन, रात चादरों मे सलवटें डालता हुआ, ऊंघता, सिर झटकता ... बाल नोचता है....
एक कतरा नींद की मन्नतें मांगता ...मन.... जब तब सो भी जाता है / गीली तकियों मे मुंह छिपाए...
पर पाप अपना हिसाब मांगने वहाँ भी हाज़िर ....
मन जाल मे फंसी मछली की तरह कसमसाता है और सपने हैं कि एक एक कर आते जाते हैं....
पुराने लोग.... आ खड़े होते हैं, चिढाते हुए... आतुरता बढाते हुए....
बचपन की खोई हुयी "ड्राइंग बुक" खुल जाती है .... एक टांग पर नाचता हुआ मोर... अल्हड हाथों से भरा हुआ भोथरा रंग... सितारों भरी फ्रोक पहन कर नाचती हुयी लड़की....

सपने मन को शार्पनर मे डाल कर पेंसिल सा उमेठते रहते हैं.... अतीत की परतें .. महीन सी छिलकों की तरह आस पास बिखरती जाती हैं....
तकिया .... भीग चुका तकिया .. कसमसाता रहता है भोर तक....

खिडकियों पर झांकती हुयी अंगूर की बेल पर दो नन्ही बुलबुलें कोई गीत गा रही हैं,
बीता हुआ गीत...
सूरज रोशनदानो से झांकता हुआ, मुंह पर ठहर सा गया है... सिरहाने चाय ठंडी हुयी जा रही...
मन है कि अभी भी नींद की दहशत मे हिचकियाँ भर रहा...

*amit anand

पन्ने


बारिश की प्रतीक्षा मे चिपचिपे हुए दिन मे मन होता है कि झरबेरियाँ खायी जाएँ, खट-मीठी झरबेरियाँ ....
मन छुट्टी की घंटी के बाद के बच्चे सा भाग उठता है अतीत की ओर स्मृतियों का बस्ता टाँगे...
नदी पर बना पीपे का डग-मग पुल.... किनारों पर खड़े कास के झुरमुट .... जामुन के जंगलों मे चरती हुयी बकरियों की में-में... छूता हुआ .. भोगता हुआ मन,
झरबेरियाँ ढूँढता है !

"वर्त्तमान का एक झोंका शरीर सहलाता हुआ गुजरता है , भादों की तपती दुपहरी ... कसमसाते हुए करवटें बदल रही है"
मन है की नदी किनारे के कास की रपट से कटता... छिलता जाता है, झरबेरियाँ नहीं मिल रहीं ....

अतीत का गडरिया दिखता है कांधे पर कम्बल डाले भेड़ों के पीछे बांसुरी बजाता गडरिया... लकड़ी के बड़े से चक्के वाली बैलगाड़ी पास से चुचुआती गुजर जाती है ..... बावरा मन झरबेरियों के आकुल...
भीगी चाँद रातों के बाद की सुबह सा धुंधलका पसरता जाता है आस पास .... कभी नदी पर बना पुराना पीपा पुल, कभी दैत्याकार खम्भों पर खड़ा नया कंकरीट पुल गडड मड्ड हों रहा...
बैल गाड़ियां भागती जा रहीं.... उनके पीछे हज़ारों हजार मोटर ......
कास मे आग सी उठती दिखी....
मन अब भी झरबेरियों की आस मे भागता फिरता है,

नदी किनारे के जामुन के जंगल गायब हों रहे .. धुंआ धुंआ हों... नए जंगल उग रहे वहाँ कुकुरमुत्तों की तरह के कंकरीट के जंगल ...

धुंधलका गहरा और गहरा होता जाता है....झरबेरियाँ है कि अतीत के किसी पन्ने मे खो सी गयी हैं....

मन.. पन्ने पलटता जाता है!!

*amit anand