Sunday, August 14, 2011

अजीब सा ख्वाब था.....


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आज रात एक अजीब सा सपना आया, देखा- सुबह सुबह एक बड़े से मैदान मे, बहुत- बहुत सारे तोते इकठ्ठा हुए हैं... पर कतरे हुए.. पालतू/गुलाम तोते!
सब के सब एक सुर मे चिल्लाते हुए- "आहा!! मजा आ गयी खा कर"
आहा! मजा आ गयी खा कर!!
जबकि मैंने ध्यान से देखा सब के सब भूखे प्यासे थे, शायद सदियों से भूखे .....
फिर भी सब के सब यंत्रवत चिल्ला रहे थे सिर्फ एक ही राग!
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मैदान के दूसरे छोर पर सूरज निकला.... धुंधलका छंटा, पर आवाजें है कि- आहा! मजा आ गयी खा कर!!आहा! मजा आ ........
दिन चढ़ता गया.... और सुर भी साथ साथ- आहा! मजा आ ............

एक ही सुर मे चिल्लाते हुए करोड़ों भूखे तोते ....भादों की चिलचिलाती धूप मे... भूखे प्यासे तोते चिल्लाते रहे एक ही राग......!

शाम ढलते ढलते... लगभग सारे तोते या तो निष्प्राण थे... या फिर सूखे गलों के साथ छटपटाते हुए तड़फ रहे थे, मुझे खुद से रहा ना गया ...... एक तड़फते हुए तोते को हाथ से उठाया... कुछ बूंदे पानी की डालीं उसके तपते हुए निश्तेज सिर पर, देखा- तोते मे हलकी सी हरकत हुयी और एक महीन सी मद्धम आवाज आई- "आहा....! मजा.... आ गयी...... खा कर!!
और उस आखिरी तोते ने भी दम तोड़ दिया!

दूर मैदान के छोर पर बैठी कुछ चीलें और कुछ गिद्ध अठखेलियाँ करते हुए से दिखे, मानो मृत्युपर्व मना रहे हों!
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आँख खुली ..आज देखा सुबह से बड़ी हलचल है बाजारों मे..... कुछ लोग सिर मे सिर जोड़े कुछ नारे लगा रहे.....मेरे देश की शान हमारा तिरंगा ... शान से सिर उठाये आसमान चूमता हुआ....
आज देश की आजादी का दिन है!

और मन है कि भीतर से चिल्ला रहा है.... मैं दोनों हाथों से मुंह को ढांपे ढांपे .....इधर उधर भागता फिर रहा हूँ!
अन्दर से आवाजें आ रही हैं/ करोड़ों करोंड की आवाज.....
"आहा! मजा आ गयी खा कर!!"

सामने चौक पर कुछ लाल नीली बत्तियां खड़ी हैं, झंडा बुलंद हवा मे फहरा रहा है, लड्डू बँट रहे हैं....
मन मे रह रह के बीती रात की चीलें और गिद्ध कौंध रहे हैं, उनकी चमकती आँखें.. उनकी विद्रूप हंसी ...

और मैं मुंह ढांपे.... भागता फिर रहा हूँ!

*amit anand
15 august 2011

Sunday, July 24, 2011

थिगलियाँ

माँ की
कांपती उँगलियों मे फंसी
सुई
और साडी की थिगलियाँ,

बुनती हैं
एक नया संसार
उसके
आस-पास,

खाली भदेली
बच्चों के सपने
टपकती छत
जाने क्या क्या...

सब...

टांक लेती है
मेरी माँ,

अभी
"भी"
कई पयबंदों की
जगह खाली है!!

*amit anand

Saturday, July 16, 2011

"मन की पतंग"

आखिरी बार
दूर...
बहुत दूर
वहाँ उस चाँद के आस-पास
गयी थी
"मन की पतंग"

और
फिर
लौटी नहीं,

हाथ सिर्फ
थोडा सा मंझा
और
चरखी ही शेष रही!

अब सूनी चाँद रातों मे
मुंह चिढाता चाँद तो दिखता है
मगर पतंग
गुम है!!
*amit anand

Tuesday, April 12, 2011

त्रासद

धान
बिहँसते खिलखिलाते
सिसकते-रिरियाते,
तपती दुपहरी
बरसती शाम
सूनी रात मे
खड़े हो बतियाते,

मैंने
प्रस्फुटन देखा है
धान के बीज..
गीली जमीन पर
उगती नन्ही हरी कोपलें!

उनका उखड़ना
एक नयी
जमीन पर विस्थापन!

फिर भी
अतीत भुला
खिल पड़ते हैं
नयी जमीन पर
मेरे खेत मे विस्थापित
नए पौधे!

नन्हे पौधे
सोखते हैं
जमीन से जीवन रस
और
चिर खड़े
मेरे खेत के धान पक जाते हैं!

कट जाते हैं
अपनी जड़ो से
एक दिन!

समझ नहीं
आता
इस खेल मे
सबसे
त्रासद क्या-

विस्थापन
?
नियत समय पर कट जाना?
या
खड़े होकर
कट जाने की
प्रतीक्षा!!

*amit anand

अपने हिस्से का चाँद

उसने
अपने कान से उतारी
आधी बीडी
और
मांग के लाया
सूरज से
आंच

सुलगाये अपने
तमाम अरमान
बीडी के साथ ,

एक गहरी कस ले
वो
तन...
खड़ा हुआ,

सुना है
उसे
अपने हिस्से का चाँद चाहिए!!

*amit anand

Wednesday, March 23, 2011

बीते हुए लोग


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बीतता नहीं
दिन
बस
लोग बीत जाते हैं,

दिन तो
आता ही है
हर रात के बाद,

बीते हुए लोग
मगर
लौट कर नहीं आते हैं!!

*amit anand

Monday, March 14, 2011

खाली बर्तन


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उफनते दूध सी
तुम्हारी नेह...
ढलकती ही रही बार बार

और
सारे गिले शिकवे
प्यार मनुहार ,

बहते रहे...

बहती रहीं सुधियाँ
स्नेह
आलिंगन
स्पर्श ....

सब कुछ

और

आखिर मे
परिस्थिति के चूल्हे पर
देह का खाली बर्तन
सूना पड़ा था!!

*amit anand

Monday, March 7, 2011

महिला दिवस


पीठ पर बड़ी वाली
पन्नी टांग
मुंह अँधेरे
निकल पडी है
आठ साल की
गुनिया,

शहर के कचरे मे
पेट की
भूंख तलाशने,

मोहल्ला - मोहल्ला
कूड़ेदान दर कूड़ेदान
खुले नालों
होटल के जूठन
अस्पताल के कचरे मे
गुनिया तलाशती है
अपने भीतर
भविष्य की औरत

सुना है
आज
महिला दिवस है!!

*amit anand

Sunday, March 6, 2011

प्रतीक्षित


चार पांच दिन से
आती थी
एक
सतरंगी तितली
दरवाजे के गुलाब पर,

कुछ दिन पहले
साख पर
कलियाँ आयीं थीं,

अधखिली कलियाँ

पिछले तमाम दिनों से
मैंने
तितली के साथ ही
भोगी थी
प्रस्फुटन की प्रतीक्षा,

और
ऊब कर
कल से नहीं गया
गुलाब तक!

आज
सुबह मुझे
गुलाब की कंटीली साख पर
तितली के पर मिले हैं,

सतरंगे ... कोमल पर !!

शायद तितली....
प्रतीक्षित ही मर गयी!!

*amit anand

Friday, March 4, 2011

चल भाई

चल भाई काम पर चलते हैं
उठ तो...
जाग...
सपने मत देख
सपने सिर्फ चलते हैं!

मुंह धुल
रात की बासी रोटी खा
पैर के घाव मत देख
घाव पर
सड़क की मिटटी मलते हैं,

चल भाई चलते हैं

चल चल
आज सड़क को बन जाना है
आखिर साहब को
इसी राह जाना है

मजूरी की मत सोच
मजूरी से ही तो
ठीकेदार अमीर बनते हैं!

चल भाई चलते हैं

उठ
बीवी को जगा
काम पर लगा
बच्चे को तसले मे डाल
मत कर मलाल,

बुखार है तो क्या
मत डर

मजूरों के बच्चे
ऐसे ही तसलों मे पलते हैं

चल देर हों रही
चल भाई चलते हैं!!

देर आना कर
उठा फावड़ा
मिटटी भर
देर हुयी तो ठीकेदार का दाम रुकेगा
दुःख होगा उसे
बीवी के गहने ... बेटे की गाडी सब रुकेंगे

पाप लगेगा
उनका श्राप लगेगा

धीर धर
श्रद्धा से पुण्य कमा
जोर लगा सड़क बना

मत सोच की हमारे दुःख दर्द
ठीकेदार को
कब खलते हैं

चल हाथ बाधा
कंधा जोड़
चल भाई! काम पर चलते हैं!!

*amit anand

Tuesday, January 11, 2011

उतरते पानी के साथ

बूढ़ी नीम की फुनगियाँ
पाठशाले की छत
उनचका टीला
सब
धीरे-धीरे लौट रहे हैं,

उतरते पानी के साथ...

रमिया परेशान हाल
सुबकती है
बंधे पर,

क्या लौट पायेगा
वो कमजोर क्षण
वो
नियति चक्र
जब
इसी बंधे पर
छोटे भाई के लिए
दो रोटियों की तलाश मे
वो गवां आई थी
"सब कुछ"

क्या वो भी लौटेगा
उतरते पानी के साथ??


*amit anand

श्रद्धा

हाथ मे फूलों की टोकरी लिए
माथे पर टीका
गोल कुमकुम का,
पीले कपडे,

बनाती हैं
एक आध्यात्मिक महल,

चन्दन सी
भीनी खुशबू वाली
लडकियां..
साक्षात देवियों का
सूक्ष्म रूप,

फूल बेचती हैं
मंदिर की ओर जाती
गलियों मे,

और
ज्यादातर
श्रद्धालु
अपनी गाड़ियों मे
बैठा कर
ले जाते हैं
फूल बेंचती लड़कियों को,
जाने कहाँ....

शायद
श्रद्धा का कोई और रूप भी है
अज्ञात
अवगुंठित!!

*amit anand

Friday, January 7, 2011

तली के अँधेरे

राम!
तुम सर्व पूजित!
मर्यादा पुरुषोत्तम कैसे..

आओ
हमारे सामने तो आओ
यहाँ
दो दो
आईने हैं
तुम्हारा सत्य तुम्हारे आगे होगा!

तुमने
कौन सा कर्त्तव्य वहन किया
हमारे लिए
क्या
तुम्हारी अयोध्या मे
सिर्फ
जंगल ही शेष थे
हमारे प्रसव को,

हमारा शैशव
अभावग्रस्त क्यूँ राम

हमारी माँ
तुम्हारी अर्धांगिनी
आखिर उसको ही क्या
दे पाए तुम?

तुम भले ही प्रकाशपुंज हो
लेकिन
राम
याद रखो
हम
तुम्हारी ही
तली के अँधेरे हैं
तुम्हारे बेहद अपने!

*amit anand

Thursday, January 6, 2011

भूत


रमरजिया!
भूल कर भी नहीं जाती
गाँव के पश्छिम के
महुआ बाग़ मे,
सुना है उधर कोई भूत रहता है!

रामजिया ने
देख रखा है-
अपनी बुआ का
विक्षत शरीर...
अर्ध पागल हुयी माँ का दर्द...
गदरू के छोटकी की
कटी जुबान,

रमरजिया
कांप जाती है
करिक्के महुए के नाम से ही,
रमरजिया
परेशान हो उठती है
तमाम प्रश्नों के साथ
जब
रातों को चीखती उसकी
अर्ध पागल माई
कराह उठती है
"तुम .... तुम ही हो ना छोटके चौधरी"

और
पूरी रात
चौधरी के अहाते का
महुआ बाग़
और करिक्का महुआ
घूमता रहता है
रमरजिया के मासूम प्रश्नों के आस-पास!!

*amit anand

चढ़ी भदेली खाली बजती

तुम क्यूँ सोचो कि मैं तुमको
फूल कभी लिख पाऊंगा,

तुम मुझको मुस्काती मिलना
मैं कांटे लेकर आऊंगा!!

आग बरसती भरी दुपहरी
तेरे तपते आँगन में
चिर प्यासी आँखों के सपने
खिलक पड़ेंगे जब तन में,

तुम तपती धरती बन जाना
मैं पुरवा बन जाऊँगा!!
तुम क्यूँ सोचो........

चढ़ी भदेली खाली बजती
बच्चों की है थाली बजती
आंसू पर है ताली बजती
बनिए की है गाली बजती,

तुम अपने कंगन धर आना
मैं सपने ले आऊंगा,
तुम क्यूँ सोचो कि मैं तुमको
फूल कभी लिख पाऊंगा!!

*amit anand

चलो वीर


चलो वीर
चलो चलते हैं,

चलते हैं उस ठावं
छोड़ अपना
गाँव,

अपना घर
अपने खेत
तीन साल की बेटी
खांसती बीवी
अँधा बूढ़ा बाप
सब छोड़!

छोड़ के चल
गाँव की तलैय्या
सोती हुयी डहर
पसरा हुआ बाग़
सब छोड़!

चल वीर
चलते हैं
शहर...

तोड़ते हैं अपने
बदन
अपनी उम्मीदों के साथ,

चलते हैं
भूखी आँतों का
राग सुनने
सुलगती दुपहरियों पर
प्यास भुनने,

चल
कुछ तिजोरियों को
जरूरत है
हमारे खून की !!

*amit anand

कन्या-भ्रूण

.
मत रोको माँ!
मुझे मिट जाने दो

ताकि

इस अग्निपरीक्षा से

गुजरना न पड़े मुझको,

मिट ही जाने दो

इस अबोली/ अदेखी को

ताकि

बार बार मिटने का
दुःख
बाकी न रह जाए

तुम्हारी तरह!


मत रोको माँ!


अपनी कोख की तरफ बढ़ते

इन हत्यारे हाथों को,


अलबत्ता
रोक लो
ये आंसू...
ये छटपटाहट

क्योकि-

इनमे तुम मुझे छिपा नहीं पाओगी

मैं

अपूर्ण ही सही
पहचान ली गयी हूँ!!

*amit anand