Thursday, July 22, 2010

"निहोर"

जाने कितनी
होली
कितने
दिवाली के दिए,
धान की कटिया
सावन के बादल
बीत गए,

साल दर साल
बढ़ता गया
खिड़की से सटा
नीम का पेड़
झर गए
चंपा के सारे फूल-पत्ते!

बिसर गयी
धुंआ उगलती वो भाप गाडी
जिससे
निकला था "निहोर"
परदेश को!

अब तो
मेले से लायी
निहोर की शेष बची चूड़ियाँ
तीन पत्तों के पीछे बची दो बिंदी
थिगलियों वाली चादर
पोस्टमैन का थैला
चूल्हे की खाली भदेली
माघ की एक आध रात ही
याद रख पाती है
निहोर को
और
सिसक पड़ते हैं तमाम असबाब!!

*amit anand

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