Friday, October 4, 2013

उस्ताद

हमारी तराई मे बहुत पहले जब रेल गाड़ियां "छुक-छुक" चला करती थीं तब हर साल सावन बीतते बीतते आ जाती थी दरभंगे की नाच मंडली, उनकी मेटाडोर ... ढोलकें हारमोनियम मंजीरे बड़े बड़े बक्से और वो अदृश्य सुंदरी..
आह! घर घर पारी लगती की फ़ला फ़ला दिन मंडली खाएगी, बड़के बगिया की पाठशाला मंडली की रिहायश बन जाती !
मंडली के रंगमंच की खातिर हम बच्चों के तख्ते छीन लिए जाते थे!
हाँ लेकिन मलाल नहीं होता था, मन मे दबा छुपा लोभ रहता कि मेरे तख्ते पर टिकोरी थिरकेगी!

टिकोरी .....
वही अदृश्य सुंदरी थी जो दिन भर उस पाठशाला मे नहीं दिखती थी , बस रात मे ..... दोनों हाथों मे चोटियाँ मटकाती नखरे दिखाती गीत गाती फिरती थी नौटंकी के बीच बीच मे......
बाल मन हज़ारों हजार ख्वाब बुना करता था उसके लिए, नानी कि दी हुयी मलाई लेकर जाने क्लितनी बार भगा था मैं पाठशाला तक .... पर दिन के उजालों मे वो कहीं नहीं दिखती थी!

क्रम चलता रहा
बाल मन साल दर साल किशोर hote हुए युवा हों गया,

लेकिन "टिकोरी" के प्रति उत्सुकता कम नहीं हुयी बढ़ ही गई,

याद है आज भी
मानो कल ही की बात हों

उस रोज ऊंघती दुपहरी मे मैं बड़ी हिम्मत के साथ सीधे मंडली के मास्टर से लड़ भिड़ा था,

बाह मास्टर जी, खाते हमारे हिया हों, इनाम हमसे लेते हों, और "टिकोरिया " को छिपाए फिरते हों?
कायदे से सुन लो कल तुम सब का खाना हमारे घर के हिस्से पर है "तिकोरिया" को लाओगे तो तबहि खाने को मिलेगा नाय तो हुवायीं नंगा नाच करवा देंगे,

अरे बबुआ, खिसिया जिन
टिकोरिया से मिले का बा ना, बिहाने मिल लेयीं, बकी टिकोरिया राउर के घरे जाए नइखे सकत ,

कौनो बात नाय मास्टर
उका दिखाय देव दिन का कल!
..

ओह ओह ओह!!
वो भी दिन था .... सुबह से सजने सवरने के हजार हजार जतन, इतर पौडर तेल... टिकोरिया से अकेले मे जो मिलना था
सीधा मास्टर के पास गया - मास्टर सुन लो कौनो चाल बाजी भाई ना तौ......
अरे रौआं काहें डरत बानी मिल लेयीं टिकोरिया से, वाऊ जू हेडमास्टर वाला कमरा मे...

धड़कते दिल और सूखते गले के साथ मैं हेडमास्टर के कमरे मे घुसा, वही .... एक दम वही .. दो दो चोटियाँ ... लाल फीते ... आँखों मे काजल .. पैर मे रुनझुन पायल
टिकोरिया ही थी वो दिन के उजाले मे
मैंने मेले मे बचाए अपने पैसों से खरीदी चांदी की अंगूठी दी उसको ..... कांपते हाथ से,
उसकी उँगलियों को छूना अप्रतिम था...

फिर वो मुझे
पीछेवाले दरवाजे से खींचते हुए बहार लेकर चली गई हम उस उआजद वाले ताल पर थे.... वहाँ कोई भी आता जाता नहीं था,

बौव्वा हमको कम से जानते हों?
बहुत दिनों से
व्याहोगे हमें?
हम्म क्यूँ नहीं
पर हम तो नीच जात हैं
कोई नहीं, हम तब भी कर लेंगे
माँ मेरे हाथ का खाएगी?
पता नहीं
फिर?
वो खुद पका लिया करेगी, तू बस मुझसे शादी कर ले
और बुढापे मे? जब वो लाचार होगी?
नौकर कर दूंगा
उन्होंने भी किया था आपके लिए जब आप छोटे थे?
उल-जलूल बात मत कर , भाग चल मेरे साथ , नाचना गाना छूट जाएगा तेरा, इज्जत से जियेगी

कुछ देर तक मौन था....
जिंदगी देखी है तुमने? (इस बार आवाज कुछ परिवर्तित थी)
हाँ बहुत
तो ये भी देखो

फिर उसने बड़े इत्मीनान ने दो दो चोटियों वाले बार उतारे और मेरे हाथ मे रख दिए...
चोली घाघरा .. कान की बालियाँ .. नाक की कील

और आखिर मे वो मेरी तरह मेरी ही उम्र का लड़का था

अमित भैय्या, जिंदगी इस से भी बड़े बड़े मुखौटे उतारेगी.... मायने टिकोरिया नहीं रखती उसकी कला को तवज्जो देना सीख लो,
टिकोरिया टिकाराम हों सकता है लेकिन बादल हमेशा बादल रहेंगे

ओह
उफ़

मैं स्तब्ध था
उस के बाद तो गाँव छूट गया लेकिन बादल बन जाने का लोभ नहीं छूटा शायद!

टिकाराम सच मुच का उस्ताद था!

*amit anand

क्या लिखूं

क्या यार??
फिर से.......
क्या लिखूं?

बोलो?

लिखूं
अस्पताल /डॉक्टर / जवान जख्मी लड़का / बूढा गरीब बाप
रेहान /उधार /जेवर /कर्जा
क्या लिखूं

लिखूं
पसीजा हुआ डॉक्टर का दिल
सफल ओप्रेसन
अस्पताल के मालिक की गालियाँ
बकाया पैसे की मांग लिखूं ?

लिखूं
पास की रेल पटरी पर
क्षत विक्षत मिली अज्ञात वृद्ध की लाश

गाँव के लोग
सफ़ेद चादर
अस्पताल में छटपटाता बेटा

पञ्च
पंचायत /धरम/करम
और
चुटकी भर अबीर

या
लिखूं

"कबीर"

*amit anand

Sunday, January 20, 2013

कन्या पुष्प

समाज की
ठिठुरती ठंढ मे
फूट पड़ते हैं
लड़कियों के फूल

मटियाली
हरी डंडियों पर
कोमल
पीले सरसों के से
कन्या पुष्प,

महकने लगता है
पूरा सीवान
खेत खलिहान
गमक उठते हैं,

आसमान से बरसती ठंढ
और
गहरे कुहासों के बीच
खिलखिलाती
रहती है
लड़कियों की
पौध,

कुछ
नन्हे फूल
रौंद दिए जाते हैं
आवारा जंगली जानवरों के खुर तले
कुछ को मार जाता है
विपत्तियों का पाला,

फिर भी
कुछ फूल
अपनी ही जिद पर
अडिग हो
गदरा जाते हैं
अपनी जड़ों पर उगा लेते हैं
अपने स्वप्न फल!

पर
नियति...
उनके
शेष रहे जिद्दी सपने
देर ही सही
पीस दिए जाते हैं
गृहस्थी के कोल्हू मे...

निकले हुए
तेल से
मंदिर का दीया
जलता है!!

आखिर नियति चक्र
लड़कियों को
बार-बार
"छलता है"

*amit anand

Wednesday, December 26, 2012

(यथा राजा तथा प्रजा )

बड़ा निर्लज्ज है मेरा 
मकान मालिक 

मांगने को तो माचिस की तीलियाँ तक 
उधार मांग लेता है 

हाँ 
मगर देने को 
दुआ तक नहीं देता 

सरकारी मुलाजिम है "मकान मालिक"

**
------------------------------------------
(यथा राजा तथा प्रजा )

Thursday, November 15, 2012

हिन्दू और मुसलमान


अरसा पहले
जब मंदिरों मे हुआ करती थी
सच मुच की आरती ,
मस्जिदें अजान मे गुनगुनाती रहती थीं,

तब
जबकि भूख ...
माँ के हाथों की लज्जत मे हुआ करती थी,

उसी दौर मे
एकाएक पागल हों गया था आदमी
कलाईयों मे राखी की जगह
तलवारें आ गयी थीं
औरतें -बच्चे काट डाले गए थे
जानवरों की तरह,
हाँ एक दम उसी दरमियाँ
जब
चूल्हों की आग
सुलगने लगी थी
दूसरों के घर
और
बेटियों के बदन पर....

उसी मारकाट के दौर मे
जब की
दो भाइयों ने
बाँट लिया था अपना आँगन,

कुछ फसलें कट चुकी थीं
कुछ का कटना बाकी था

वो दौर......

ओह
उस रेल-पेल
भागम भाग
मार काट मे

दो भाइयों की लाशें
जिन्दा बच गयीं थीं
जिन्हें हम आज
हिन्दू और मुसलमान कहते हैं!
*amit anand

जाने दो

मैं दंगाई नहीं

मैं आज तक

नहीं गया

किसी मस्जिद तक

किसी मंदिर के अन्दर क्या है

मैंने नहीं देखा,



सुनो

रुको

मुझे गोली न मारो

भाई

तुम्हे तुम्हारे मजहब का वास्ता

मत तराशो अपने चाक़ू

मेरे सीने पर,



जाने दो मुझे

मुझे

तरकारियाँ ले जानी हैं



माँ

रोटिया बेल रही होंगी!



*amit anand 

गुनाह

बरसती दुपहरियों मे बरामदे पर चारपाई डाले हुए मन .... हवाओं के साथ बहती आती हुयी बूंदों मे भीगता ... सिहरता अतीत की ओर भागता है!
बीते दिन याद आते हैं.... एक अनदेखी लेकिन चम्पई एहसास समेटे हुए एक लड़की... जिसकी सांस सांस मे कविता के शब्द झरा करते थे.... मंदिर की घंटियों के से शब्द!

याद आते हैं बीते हुए दिन.... तकिये मे सिर छिपाए हुए, 
आरती के सुर.... शाम के धुंधलके मे मस्जिद से आती हुयी अजान सी उसक
ी बोली.... उबलते हुए दूध मे अभी अभी डाले गए केशर की सी यादें भीतर भीतर घुलती हैं!

अपने पाप..... अपना छल याद आता है, बारिशें हैं की जोर पकडती जा रहीं! भीतर की ढृढ़ दीवाल दरक रही हों मानो
उसकी पावनता... उसका अपनापन....
ओह ओह
तकिया पानी मे नहीं भीगा शायद..... आँखें गीली हैं मेरी!

मेरे ईश्वर!
भले ही मेरे गुनाह ना माफ़ कर!

लेकिन उस मासूम फ़रिश्ते को खूब सारी खुशियाँ देना...


*amit anand